रत्न

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मनुष्य रत्नों एवं मणियों का प्रयोग आभूषणों, मुकुटों, राज सिंहासनों, महलों की सजावट आदि में प्राचीन काल से करता आया है।
आयुर्वेद में इन रत्नों की भस्मों आदि का उपयोग विभिन्न रोगों की चिकित्सा में किया जाता है। अधिकांशतः रत्न खनिज हैं। मुख्यतः रत्नों की संख्या 84 बताई गई है। विभिन्न रत्नों के उपरत्न भी उपलब्ध हैं।
ज्योतिष विज्ञान के अनुसार रत्न ग्रहों से शुभत्व पाने के लिए धारण किए जाते हैं।
आकाश में स्थित ग्रह एवं नक्षत्र भूतल पर रहने वाले प्राणियों पर प्रभाव डालते हैं। ये प्रभाव कुंडली में ग्रहों की स्थिति के अनुसार शुभ या अशुभ होते हैं।
रत्न फिल्टर का कार्य करते हैं। वे नक्षत्रों एवं ग्रहों से प्राप्त रश्मियों को शक्तिभूत कर हमारे शरीर में प्रविष्ट कराते हैं। रश्मियां घनीभूत होकर ग्रहों को शक्ति प्रदान करती हैं।

जन्मकुंडली के अनुसार लग्नेश, पंचमेश एवं नवमेश (भाग्येश) ग्रहों के रत्न बिना किसी शंका के धारण किए जा सकते हैं क्योंकि ये ग्रह जातक के लिए कारक होते हैं। इस तरह कारक ग्रहों का बल बढ़ने से जन्मकुंडली में कुयोग जनित अशुभ फल दूर होते हैं।

रत्नों में छिपे अनेक गुणों के कारण मनुष्य इनका उपयोग प्राचीन काल से ही करता आया है। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी इनकी सार्थकता बनी हुई है क्योंकि जिन कतिपय समस्याओं के समाधान में कोई अन्य माध्यम असमर्थ होता है उन्हें दूर करने में ये रत्न सहायक होते हैं। किंतु धारण के पूर्व इनके गुण दोषों का विश्लेषण आवश्यक होता है क्योंकि बगैर विश्लेषण के धारण करना हानिकारक हो सकता है।

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ज्योतिषीय सिद्धांत के अनुसार किसी जातक को अपनी राशि, लग्न, मूलांक/ भाग्यांक, व्यवसाय, अनुकूल रंग और अस्वस्थता की अवस्था में रोग निवारण के अनुरूप रत्न धारण करना चाहिए। इस हेतु जन्मकुंडली हाथ तथा भाग्यांक और मूलांक का विश्लेषण भी आवश्यक होता है। कुंडली के अनुसार जो ग्रह अनुकूल हो उसी का रत्न धारण करें। कभी भी अशुभ या प्रतिकूल ग्रह का रत्न धारण न करें, उन्हें मंत्र जप या दान द्वारा शांत करें।

रत्न बिना विधि-विधान पूर्वक, उचित मुहूर्त में उपयुक्त मंत्र का जप कर धारण करना चाहिए। रत्न को नित्य प्रातः माथे से लगाकर उसके मंत्र का जप करने से उसका लाभ शीघ्र व कई गुना मिलता है। किस लग्न के जातक को कौन से रत्न धारण करने चाहिए इसका संक्षिप्त विवरण नीचे की तालिका में दिया गया है। सारणी में निर्धारित रत्नों के अलावा कोई अन्य रत्न कुंडली में स्थित ग्रहों तथा तात्कालिक समय की विंशोत्तरी महादशा का विश्लेषण करा कर ही धारण करना चाहिए।

चूंकि राहु और केतु का राशि स्वामित्व विवादास्पद है अतः गोमेद एवं लहसुनिया धारण करने के लिए कुंडली में इन दोनों ग्रहों की स्थिति का विश्लेषण अवश्य करा लेना चाहिए।

रत्न मुख्यतः नौ हैं जिन्हें ग्रहों की स्थिति के अनुरूप धारण कर लाभ लिया जा सकता है। यहां किस ग्रह के शुभ फल की प्राप्ति के लिए उसकी किस स्थिति में कौन सा रत्न धारण करना चाहिए इसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।

सूर्य

लग्नस्थ सूर्य दाम्पत्य एवं संतान सुख को क्षीण करता है। द्वितीयस्थ सूर्य धन हानि का कारक, तृतीयस्थ छोटे भाइयों और चतुर्थस्थ कर्मफल के लिए हानिकारक होता है। इन अशुभ फलों से मुक्ति के लिए माणिक्य धारण करना चाहिए।

सूर्य अपनी राशि से अष्टम, एकादश या सप्तम भाव में हो या द्वितीयेश, नवमेश अथवा कर्मेश होकर छठे या आठवें भाव में हो, या द्वादश में हो अथवा अष्टमेश या षष्ठेश होकर पंचम या नवम भाव में हो, तो इस स्थिति में भी माणिक्य धारण करना चाहिए। माणिक्य के अभाव में लालड़ी धारण की जा सकती है।

चंद्र

जन्म कुंडली में चंद्र पाप ग्रहों के प्रभाव में हो या बलहीन हो, अपनी राशि से षष्ठ या अष्टम में, पंचमेश होकर द्वादश में, मकर में सप्तमेश, द्वितीय भाव में, नवमेश होकर चतुर्थ में, दशमेश होकर पंचम में, एकादशेश होकर षष्ठ में, मिथुन लग्न में सप्तम में, मेष में नवम में, मिथुन लग्न में सप्तम में, मेष में द्वादश में, वृश्चिक में द्वितीय में, तुला में तृतीय में और कन्या में चतुर्थ में स्थित हो या पाप ग्रहों से दृष्ट या युत हो अथवा उसकी महादशा चल रही हो तो मोती धारण करना चाहिए।

मंगल

अशुभ मंगल बहुत हानिकारक होता है। लग्नस्थ मंगल दाम्पत्य सुख में बाधा पहुंचाता है तथा शारीरिक कष्ट का कारक होता है। मंगल किसी भाव में राहु या शनि या किसी शत्रु ग्रह के साथ स्थित हो, वक्री या अस्त हो षष्ठ या अष्टम भाव के स्वामी के साथ हो या उससे दृष्ट हो अथवा चतृर्थ, षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो, उसकी दृष्टि सुख, संतान, सप्तम, भाग्य, कर्म या लाभ भाव पर हो तो मूंगा धारण करना चाहिए।

मेष या वृश्चिक लग्न में मंगल षष्ठ भाव में, मीन या तुला में सप्तम या नवम में, कन्या या कुंभ में कर्म भाव में, मकर या सिंह में लाभ भाव में, धनु, कर्क या सिंह में लाभ भाव में, धनु या कर्क में व्यय या कर्म भाव में, तुला या वृष में द्वादश में या मिथुन अथवा मकर लग्न में चतुर्थ या षष्ठ भाव में हो, तो मूंगा धारण करना चाहिए।

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बुध

पन्ना और मोती के बारे में प्रायः यह धारणा है कि इसे हर कोई धारण कर सकता है। लेकिन बुध ग्रह की स्थिति दुर्बल हो तो पन्ना या मोती अवश्य धारण करना चाहिए। आयुर्वेद में भी इन रत्नों को विषशामक कहा गया है। इसे धारण करने से जीवन सुखमय होता है। मिथुन एवं कन्या लग्न में बुध नीच राशि मीन में स्थित हो तो पन्ना धारण करना चाहिए।

बुध जिस भाव का स्वामी हो उससे षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो या उसकी अंतर्दशा अथवा महादशा चल रही हो, तो इस स्थिति में व्यापार, गणित, ज्योतिष या कंप्यूटर का कार्य करने वालों को यह रत्न धारण करना चाहिए। वृष या सिंह लग्न में बुध नवम भाव में, मेष या कर्क में कर्म भाव में, चतुर्थ भाव का स्वामी होकर लाभ भाव में या सप्तम भाव का स्वामी होकर षष्ठ भाव में हो तो पन्ना धारण करना चाहिए।

गुरु

कर्क, धनु, मीन या सिंह लग्न और पुनर्वसु, पुष्य, विशाखा या पूर्वा भाद्रपद नक्षत्र में जन्म लेने वाले, जिनकी कुंडली में गुरु अपनी राशि से षष्ठ, अष्टम या द्वादश में स्थित हो, उसकी महादशा या अंतर्दशा चल रही हो, वह धन भाव का स्वामी होकर भाग्य भाव में, सुख भाव का स्वामी होकर आय भाव में, सप्तम भाव का स्वामी होकर धन भाव में, नवमेश होकर सुख भाव में या कर्मेश होकर पंचम भाव में हो अथवा पंचम, षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो, या मेष, वृष, सिंह, वृश्चिक, तुला, कुंभ अथवा मकर राशि में हो या उसके साथ कोई भी ग्रह हो, तो पुखराज धारण करना चाहिए। जिन लड़कियों की शादी में विलंब हो रहा हो या जिन विवाहिताओं का दाम्पत्य जीवन सुखमय न हो, उन्हें पुखराज अवश्य धारण करना चाहिए, क्योंकि गुरु स्त्रियों के लिए पति एवं संतान सुख कारक है।

शुक्र

शुक्र ग्रह ऐश्वर्य एवं भोग विलास का कारक ग्रह है। यह पुरुषों के लिए दाम्पत्य सुख कारक भी है। जन्म लग्न तुला या वृष हो, शुक्र अस्त, वक्री, नीचस्थ लग्नस्थ या अष्टमस्थ हो अथवा किसी शुभ भाव का स्वामी होकर उस भाव से षष्ठ या अष्टम में स्थित हो, उसकी महादशा या अंतर्दशा चल रही हो, तो हीरा धारण करना चाहिए। सिने कलाकारों, प्रेमी-प्रेमिकाओं, गायन-वादन कलाकारों, शृंगार प्रसाधन का काम करने वालों, वीर्य दोष से युक्त पुरुषों, भूत प्रेत बाधा से पीड़ित लोगों आदि को हीरा धारण करना चाहिए।

शनि

शनि की ढैया, साढ़ेसाती, महादशा या अंतर्दशा चल रही हो, जन्म लग्न मेष, वृश्चिक, वृष या तुला हो, शनि नीच या सिंह राशि में स्थित हो, या सूर्य से सम सप्तक हो, षष्ठ या अष्टम भाव में लग्न रत्न मेष मूंगा, माणिक्य एवं पुखराज वृष हीरा, पन्ना एवं नीलम मिथुन पन्ना, हीरा एवं नीलम कर्क मोती, मूंगा, पुखराज, सिंह माणिक्य, पुखराज एवं मूंगा, कन्या नीलम, पन्ना एवं हीरा तुला हीरा, नीलम एवं पन्ना, वृश्चिक मूंगा, पुखराज एवं मोती, धनु पुखराज, मूंगा एवं माणिक्य, मकर नीलम, हीरा एवं पन्ना, कुंभ नीलम, पन्न एवं हीरा मीन पुखराज, मोती एवं मूंगा हो, षष्ठेश अथवा अष्टमेश के साथ स्थित हो, चतुर्थ, पंचम, दशम अथवा एकादश भाव में हो या कुंडली में प्रधान ग्रह हो तो नीलम धारण करना चाहिएं लेकिन धारण करने से पूर्व परीक्षण अवश्य करवा लेना चाहिए।

राहु

जन्मकुंडली में राहु धनु या वृश्चिक राशि में हो, जन्म लग्न मकर, कुंभ, वृष या तुला हो, राहु की युति शुक्र और बुध के साथ हो, राहु कुंडली में भाव एक, चार, सात या दस अथवा नवम या एकादशभाव में हो तो गोमेद धारण करना चाहिए। राहु की महादशा या अंतर्दशा चल रही हो और वह अशुभ फलदायक हो, तो इस स्थिति में भी गोमेद धारण करना चाहिए। न्यायालय से जुड़े कार्य करने वालों, राजनीतिज्ञों या दुस्साहसिक काम करने वालों को गोमेद धारण करना चाहिए। गोमेद भूत प्रेत बाधाओं से भी रक्षा करता है।

केतु

केतु का अशुभ प्रभाव विभिन्न शारीरिक कष्टों, बीमारियों, पशुओं एवं जहरीले जीव जंतुओं से खतरों तथा भूत प्रेत बाधाओं का कारक होता है। इन सबसे बचने के लिए लहसुनिया धारण करना चाहिए। केतु की महादशा या अंतर्दशा हो, जन्मकुंडली में केतु मंगल, गुरु या शुक्र के साथ स्थित हो या द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, नवम, दशम या पंचम भाव में स्थित हो या पंचमेश, नवमेश, धनेश, लाभेश, कर्मेश अथवा चतुर्थेश के साथ स्थित हो, या उस पर दृष्टि डालता हो तो लहसुनिया धारण करना चाहिए।

इस प्रकार सभी नौ ग्रहों की स्थितियों के अनुरूप रत्न धारण कर उनके अशुभ प्रभावों बचा जा सकता है। किंतु रत्न धारण से पूर्व ग्रहों की स्थितियों का भलीभांति विश्लेषण करा लेना आवश्यक है। रत्न की आवश्यकता अनुरूप ही धारण करें। रत्नों को शुभ मुहूर्त में विधि विधानपूर्वक ग्रहों की निश्चित धातु की अंगूठी अथवा लाॅकेट में जड़वाकर तथा उनकी प्राण प्रतिष्ठा करवा कर उपयुक्त उंगली में धारण करें।

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